नरोत्तम भास्कर
“आवहु सब मिल रोवहुं भाई, भारत दुर्दशा देखी न जाई” भारतेन्दु हरिश्चंद्र
की यह उक्ति देश को स्वतंत्रता प्राप्त होने के 66 साल बाद भी उतनी ही सटीक
है।अंग्रेजो द्वारा भारत की संपदा को अलग-अलग तरीके अपनाकर लूटकर इंग्लैंड ले जाने
की स्थिति, उसकी विवेचना और उसके प्रभाव को देखते हुए भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने यह
कविता रची थी। आज देश के सभी क्षेत्रों में उतनी ही लूट-मार मची हुई है, जितनी उनके
समय में थी। देश की बौद्धिकता के स्तर को बनाए रखने के लिए जिम्मेवार शिक्षा
प्रणाली भी इस लूट-मार के कारोबार में उतने ही संलग्न पाये जाते हैं जितना कोई
और।
शुरुआत प्राथमिक शिक्षा से करते हैं। गांधी, महर्षि अरविंद और गुरु
रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे विचारकों ने यह कहा था कि प्राथमिक शिक्षा हेतु मातृभाषा ही
सबसे उपयुक्त माध्यम हो सकती है। देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जनता से टैक्स
वसुल कर भारत देश में मनों स्याही और टनों कागज इस विषय पर शोधकार्यों, संगोष्ठीयों
और आयोगों के द्वारा खर्च कर दिए गये, हरेक ने गांधीजी की बात का समर्थन किया।
परिणाम ठीक उलटा हुआ क्योंकि गांधीजी तो वोट पॉलीटिक्स के आधार स्तंभ-मात्र थे,
व्यक्तिगत जीवन में ज्योतिष, झाड़-फूंक और बाहर अंग्रेजीदांपन का दुमुहांपन कई
संविधान-निर्माताओं की जीवन-पद्धति का शगल हुआ करता था। पहले-पहल प्रधानमंत्री के
नातियों ने देहरादून के अंग्रेजी माध्यम के बोर्डींग स्कुलों मे पढ़ा था, यह अलग
विवाद का विषय है कि खानदानवाद के अतिरिक्त उनकी बौद्धिक उपलब्धियां कुछ खास नहीं
थीं।
दुसरी पीढ़ी के प्रशासकों ने अपने बच्चों को डी0ए0वी0 जैसी अंग्रेजी के
कॉरपोरेट विद्दालयों मे भेजा, यहां यह अनुपयुक्त और अनुत्तरित प्रश्न है कि इनका
भविष्य बनाने के लिए पुरे देश का कॉर्पोरेटीकरण करना पड़ा, साथ ही अनुत्तरित प्रश्न
यह भी है कि ऐसा पिछली पिढ़ी द्वारा बनाए काले धन को जायज बनाने के लिए भी किया गया।
अब किंडरगार्डेन और मांटेसरी की
अवधारणा को आधार बना कर दो वर्ष की उम्र से ही विद्दाध्ययन की जिम्मेवारी नई पीढ़ी
पर डाल दी गयी है, जबकि यह तय है कि बचपन बचाओ आंदोलन के युग में चलने वाले इन
किड-स्कुलों में बचपन मिटाने की पुरी व्यवस्था कर दी गई है। किंडरगार्डेन और मांटेसरी दोनों में खेलते-खेलते सिखने की
अवधारणा का की खिचड़ी भारत के अलावा कौन पका सकता था। खिलौने दिखाकर एडमिशन लेने के
बाद हजार रुपये के किताबों की लिस्ट थमाना कोई कैसे भूल सकता है, जो चंद पैसे कमिशन
में लेने की लत ऐसी लगी हुई है।
किताबों के बोझ तले बचपन को दबाने, होमवर्क की मार से चश्मा लगवाने और नंबर
की दौड़ में स्वास्थ्य को नजरअंदाज करने का पिछले चालीस वर्षों से शिक्षा व्यवस्था
पर लगता रहा है। यह इत्त्फाक की बात नहीं है बचपन बचाओ जैसा एनजीओ-करण भी इसी
शिक्षा व्यवस्था के साथ बढ़ता ही गया – मर्ज बढ़ती गयी ज्यों ज्यों दवा
की।
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