Friday 3 October 2014

गांधी मैदान मे भगदड़



http://media-education-ethics.blogspot.in/2012/12/blog-post_839.html
आज के पट्ना के भगदड़ को दो साल पहले भी झेल आया हु जिसका व्यौरा ऊपर के लिन्क मे है।
आज मै अपने बेटे और बेटी को लेकर गया था जैसे हीघर वापस आया शुभचिन्तको के फ़ोन आने शुरु हो गये. खैर हमारा रास्ता फ़्रेज़र रोड होकर था। एक्जीविशन रोड के बीच मे ओभर्ड्राइव बन रहा है जिसकी वजह से दोनो तरफ का मुश्किल से 20-20 फीट का हिस्सा उप्योगी है। उसपर से भी गाड़ीयो की अवैध पार्किंग लगी रहती है जो आज भी रही होगी। यह सड़क कंकड़बाग मुहल्ला जाने हेतु ब्बने चिरैयाटांड़ पुल के सामने है जिसकी वजह से गांधी मैदान की आधी भीड़्का दबाव इस सड़क पर  था। लोगों ने जहां किसी भी नियम का पालन नहीं किया वहीं पुलिसकर्मी भी अंतिम दिन की खानापुर्ति कर रहे थे। सड़क पर वाहनों की रोक भंग हो रही थी और पुलिसकर्मी मूकदर्शक थे। मैने गांधी मैदान से निकलने वाली चार सड़्को अशोक राजपथ, बिस्कोमान रोड,छज्जुबाग रोड, फ्रेजर रोड को अराजक्ता पूर्ण स्थिति मे खचाखच भरा हुआ पाया। खैर मैं 30 वर्षों से पटना में रह रहा हुं इसलिए गली गली होकर निकल गया। अब शुरु हुआ एक दारोगा चार सिपाही 10 होमगार्ड को सस्पेंड करने का खेल.............................................................................मरी हुई पुलिस को जिन्दा होनेका सर्टिफ़िकेट (भगदड़ की जांच) डीजीपी/गृह सचिव से लेने के बजाए कोई सरकार डीजीपी/गृह सचिव को सस्पेन्ड क्यो नहीं करती.......शायद नेता अफसर गठजोड़ के कारण

Monday 24 June 2013

विकास किसका – "कचरे का"

मिट्टी के मकान और फूस की झोपड़ी में से इतना भी कचरा नहीं निकला था कि दोनों हाथों मे भर सके। देखना है तो सुदूर देहात में जाइए और किसी आदिवासी के यहां सुबह-सुबह देख लिजिए। फिर आदमी ने आधुनिक बनना और विकसित बनना शुरु किया। आदमी के द्वारा फेंके गए कचरे से गढ्ढे भर गे, तालाब-आहर-पोखर-पइन भी भर गए। गोया कचरा न हो कोई राक्षस हो। हल्की-सी बरसात हुई नहीं कि बाढ़ हाजिर हो जाए और उस बाढ़ में बहता गली-कुचे में लुक छिप कर फेंका गया कचरा मुंह के सामने नाजिर हो जाए।



विकास हुआ तो कचरे का या आदमी का, यह सवाल आदमी से पूछने पर थप्पड़ खाना पड़ेगा, क्योंकि आदमी को विकास के प्यार में परेशान है। वह दिन-रात या तो बेरोजगारी का थप्पड़ खा-खाकर परेशान है, या नियोक्ता के। जो इनसे बच जाते हैं वे तो मीडिया के पीछे पड़ने से परेशान हैं। कुछ भी हो परेशान मस्तिष्क को सवाल-जवाब से झुंझलाहट होती है। परेशानीयों के थप्पड़ खाकर झुंझलाया इंसान इस तरह के सवाल करनेवाले पर थप्पड़ जरुर चला देगा। क्योंकि वह जानता है कि उसके सोंचने से कोई व्यावहारिक संतोषप्रद जवाब नहीं मिलेगा। इसलिए जो सोचने को कहे समझो समय उसका भारी हो गया है। तब कचरे से ही सवाल पूछ्ना मजबुरी है।


अब कचरा भी बोलता है भला! आदमी चुप रहता है तो सबूत बोलता है। सबूत को चुप करने के लिए रुपया बोलता है! रुपए के दम पर वकील बोलता है, वकील के दम पर न्यायाधीश बोलता है। विज्ञापनदाता के कहने पर पत्रकार बोलता है, कसाई के यहाँ पहुँचने पर गुंगा बकरा भी बोलता है। इसी तरह जब डेंगु-मलेरिया होता है तो मरीज के मुंह से कचरा बोलता है, सरकार के पुरी फौज लगाने पर भी नहीं मरनेवाले मच्छर के मुंह से कचरा बोलता है, ऑटो-कार-रेलवे-कारखाने के धुंए से कचरा बोलता है, गौर से देखो गली-गली में आजु से बाजु से कचरा बोलता है।


कचरा क्या बोलता है – पहाड़ों में पत्थर थे, पथरों पर झाड़ीयाँ थी, झाड़ीयों मे हरियाली थी, हरियाली मे जड़ी-बुटीयाँ थी, जड़ी-बुटीयों मे मनुष्यों की जीवनी शक्ति थी। मनुष्यों ने अपनी जीवनी शक्ति की जड़ी-बुटीयों की नस्ल मिटायी, हरियाली हटा कार्बन-डाई-ऑक्साइड बढ़ाया। फिर पत्थरों को तोड़ने में बारुद लगाया, ढोने में डीजल, इंच-दर-इंच कंक्रीट ढलवाया । हर दस साल बाद नया कंक्रीट ढलवाया। मनुष्यों के द्वारा तोड़ा गया हर पत्थर एक दिन कचरा बन जाता है, पेट्रोलियम की हर बुंद एक दिन कचरा बन जाती है, हर पानी की बोतल कचरा बन जाती है, दवाओं की पैकिंग कचरा बन जाती है, कुर्सी-पलंग-टेबुल कचरा बन जाती है, हर कागज का टुकड़ा कचरा बन जाता है, हर भोजन (चाय-बिस्कीट-केक) की पैकेजिंग कचरा बन जाती है, बच्चे जब अकेले छोड़ कर विदेश चले जाते हैं तब समझ में आता है कि इंसान खुद कचरा बन गया है। कभी राजतंत्र कचरा बन जाता है तो कभी राजा कचरा बन जाता है, कभी प्रजातंत्र का प्रधानमन्त्री – राष्ट्रपति भी एक दिन कचरा बन जाता है।


मनुष्य जो भी विकास के नाम पर करता है वह एक दिन कचरा बन जाता है। इंजिनीयरींग का नमुना पटना का गांधी-सेतु कचरा बन जाता है, अमेरीका का वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर कचरा बन जाता है। मेडिकल साइंस की खोजी गई हर नई एंटीबायोटिक एक दिन कचरा बन जाती है। नौकरी स्थायी हो जाने पर पी0एच0डी0 की थेसिस भी कचरा बन जाती है। जब स्टेशन पर शिशु को दूध नहीं मिलता तो पॉकेट का रुपया कचरा बन जाता है। स्टेशन से याद आया – हर बीस साल बाद रेलवे का इंजन-पटरी-डिब्बा कचरा बन जाता है, पचास साल बाद पूरा रेलवे स्टेशन कचरा बन जाता है। नालंदा विश्वविद्दालयों के खंडहरों में कुआँ आज भी मौजुद है लेकिन महान अविष्कारों की देन बोरींग-मोटर-पानी की टंकी कचरा बन जाती है।


कचरे ने आगे कहा – बता भला मैं रक्तबीज कैसे न बनुं। जब मनुष्य दिन-रात कचरा बनाता है, अपनी सारी अकादमिक बुद्धि को कचरा बनाने में लगाता है, उसका हर आविष्कार और अनुसंधान नए-नए विकसित संस्करण के कचरे बनाने का प्रतिफल देता है, उसकी पढ़ाई नंबर एक की दौड़ में उसके अच्छे भले बच्चे को कचरा बना देती है, उंची पगार और कैरियर के लिए बारह चौदह घंटे प्रतिदिन की कसरत को जायज ठहराकर दिल-नाड़ी-किडनी को कचरा बनाती है। मानव का कोई ऐसी गतिविधि ही नहीं है जो क्चरा नहीं बनाती – क्या फैशन, क्या एजुकेशन, क्या नौलेज, क्या जर्नलिज्म, क्या इंटरप्रेन्योरशीप, क्या रिसर्च, क्या इन्नोवेशन।



पूछना पड़ा – पिछले हजारों सालों से आप कहां थे कचरा महान? मानना पड़ेगा कि धरती से अँतरीक्ष तक आपका ही साम्राज्य है। आपको किसी का भय नहीं लगता? सतयुग-द्वापर-त्रेता का अंत हुआ, इतिहास में कई राक्षसराज पैदा हुए सबका अंत हुआ, ईश्वर के सभी अवतारों का अंत हुआ, लेकिन आपको तो अपने अंत का कोई भय ही नही है। कभी कोई बुरा सपना देखा हो तो बताएँ।


अट्टहास कर कचरा बोला – हजारों सालों से न कंक्रीट था, न पेट्रोलियम और न ही मानव में मूर्खता थी। मानव जो भी करता नैतिकता के दायरे से बाहर नहीं जाता था। सबसे बड़ी बात कि मनुष्य तब प्रकृति को ईश्वर समझता था और खुद (अपने शरीर) को कचरे का डब्बा। अपने स्वत्व के अहंकार से मुक्त रहकर वह प्रकृति का पोषण करता था, अभी की तरह दोहन नहीं. पहले वह उन्हें गुरु मानता था जो हर तरह का ज्ञान, आनंद और विकास अपने शरीर के अंदर से ढुँढ़ निकालते थे। दुसरों के लिखे-कहे का रट्टामार जोड़-तोड़ कर खुद को बड़ा साबित करने की कोशिश करनेवाला धुर्त घोषित कर दिया जाता था। अब वह उसे गुरु मानता है जो ज्यादा से ज्यादा किताबें रट्टा मार चुका हो, ज्यादा से ज्यादा कागज के रुपये, डिग्रीयां या सम्मानपत्र इकट्ठा कर चुका हो। अब सबसे बड़ा वह है जो सबसे ज्यादा कचरा गढ़ चुका हो।


तभी तो हिमालय की तराईयों में और अंडमान-निकोबार के द्वीपों में मनुष्य हजारों सालों से चैन से रह रहा था। आज उसे कहीं चैन नहीं है। गांवों से शहर भागता है, शहरों से महानगर, महानगरों से विदेश, विदेश से दुसरे ग्रहों पर लेकिन बेचैन ही मर जाता है। वह भूल गया है ईसा मसीह और पैगम्बर मोहम्मद को, राम और कृष्ण को कालपनिक घोषित कर चुका है – गांधी को भी कहां मानता है। गांधी ने कहा था कि पृथ्वी अपने सारी संतानों को खाना दे सकती है लेकिन किसी एक व्यक्ति के लोभ का पेट नहीं भर सकती। अगर उनकी बात को मनुष्य मानता तो तमाम लोभीयों को चुनाव में सीधे हरा देता लेकिन पीढ़ीयों से रोटी देनेवाली अपनी धरती मां को छोड़ कर भागता नहीं। जिस प्रकार आदमी जितना भागता है उसे कुत्ते और मधुमक्खी उतना ही खदेड़ते हैं, उसी प्रकार आज का आदमी जितना भागदौड़ करता है उतना ही मेरा साम्राज्य बढ़ता है, क्योंकि विकास की मृगतृष्णा में वह हर कदम पर कचरा ही तो पैदा करता जाता है।



मुझे किसी का भय नहीं है। किसी के पास इतना समय नहीं है कि इतनी दूर तक सोंचे, जो इतना सोचेगा उसे दुनिया पागल घोषित कर देगी, न्युटन की तरह। वह जितना बाहरी विकास करेगा उअतना ही कचरा पैदा करेगा, उतना ही अधिक मेरा साम्राज्य बढ़ेगा, उतना ही मैं गरीबों का खुन पिउंगा और शक्तिशाली बनुंगा। जो बचेंगे वे विकास के अतिरिक्त कुछ भी दाएँ-बाएँ नहीं सोचेंगे क्योंकि वे मानते हैं कि वे ही सबसे बुद्धिमान, शक्तिशाली और विकासशील और विकासशील हैं। जो भी आभ्यंतर के विकास की बात करेगा उसे आमरण अनशन की मौत नसीब होगी। इसलिए मैं निर्भय हुं। जो लोग ठहरकर सोचेंगे वे पायेंगे कि उनका पड़ोसी उनसे बहुत आगे निकल चुका है, उनकी आनेवाली पीढ़ीयां अपने भौतिक पिछड़ेपन के लिए अपने पितरों को गाली देंगी और विकास की अंतहीन अंधी सुरंग में दौड़ पड़ेंगी - जिवनभर कचरा पैदा कर खुद कचरा बन जाने के लिए।


हां! एक बार बहुत समय पहले एक बुरा सपना आया था, गांधी की तरह कोई खुद नंगे रहकर अनुयायियों से कपड़े जलवा रहा था, मार्क्स की तरह पेट्रोलियम-कंक्रीट के खिलाफ चौराहे पर चिल्ला रहा था, शंकराचार्य और विवेकानंद की तरह विश्वभर के विद्वानो और वैज्ञानिकों को निरुत्तर कर रहा थ, ईसा मसीह की तरह उसे सुली पर चढ़ा दिया गया तब जाकर मेरी नींद खुली। जब नींद खुली तो पाया कि पिछले एक घंटे में मेरा साम्राज्य 100 हेक्टेयर बढ़ चुका है, मेरे अनुयायीयों की संख्या एक लाख बढ़ चुकी है सारे अनुयायियों ने कमा-कमाकर एक हजार टन कचरा बढ़ा दिया है। सपने से पैदा हुई चिंता दूर हो चुकी थी।

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खाप – वोटतंत्र का श्राप

हरियाणा के 2012 के सितंबर में 18 महिलाओं, जिनमें नाबालिग भी शामिल हैं, के साथ बलात्कार की घटनाएँ पुलिस द्वारा दर्ज की गई हैं। इनसे हरियाणा सरकार की इतनी किरकिरी हुई कि सोनिया गाँधी जब हरियाणा गई तो एक बलात्कार-पीड़ित दलित महिला से मिलने अस्पताल जा पहुँची। लेकिन उन्होने जब हरियाणा छोड़ते समय पत्रकारों से बात की तो बलात्कार की औपचारिक आलोचना के साथ ही यह भी कह गईं कि देशभर में इस तरह की घटनाएँ बढ़ रही हैं। अपराधियों को सजा, पीड़ितों को न्याय और कानून व्यस्था में सुधार के बजाए अपनी हरियाणा सरकार का बचाव उनकी प्राथमिकता बन गई। गोया महिलाओं के साथ अपराध बढ़ रहे हैं तो इसे न तो हरियाणा सरकार और न ही केन्द्र सरकार की कोई जिम्मेवारी है, न इसे उनकी असफ़लता के तौर पर देखा जाना चाहिए।


      जब बलात्कार-पीड़िता से मिलने के बाद इस तरह का असंवेदनशील बयान दिया गया तो बलात्कारी से मिल लेने के बाद क्या होता? संभव है कि तब वही बयान होता जो हरियाणा की खाप पंचायतों ने दिया – लड़कियाँ पहले की अपेक्षा अब जल्दी जवान हो रही हैं इसलिए उनकी जल्दी शादी कर दी जानी चाहिए – सरकार को विवाह की न्यूनतम उम्र सीमा को घटाकर पंद्रह साल कर देना चाहिए।
      यह हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की खाप-राजनीति का ही असर है कि बलात्कारियों को यथाशीघ्र सजा सुनिश्चित करने के बजाए ऐसी घटनाओं की वर्ष-दर-वर्ष बढ़ती संख्या को सामान्य रुप से लेने की कोशिश, उस राजनीतिक हस्ती को करनी पड़ी जिसे विश्व की छठवें नंबर की सबसे शक्तिशाली महिला घोषित किया गया है।
हद तो तब हो गई जब उन्हीं की पार्टी के नेताओं ने न सिर्फ खुलेआम खाप की बातों का समर्थन किया बल्कि विपक्ष ने पूरी तन्मयता से खापों की बात राज्यपाल तक पहुँचाने में शीघ्रता दिखाई। खापों के डर से उत्तर प्रदेश से राजस्थान, हरियाणा से हिमाचल प्रदेश तक के सत्ताधारी और विपक्ष के नेता समय-समय पर खापों के दकियानूसीपन का समर्थन करते देखे जाते हैं।
      आजादी के पैंसठ साल बाद भी जिस देश के अधिकांश ग्राम पंचायतों में ग्राम सभा की बैठकें नहीं होती, जातीय राजनीति करनेवाले करनेवाले अधिकांश लोग बिना दहेज के अपनी ही जाति की बेटी को अपनी बहू नहीं बनाते, किसी पंचायत सरकार के काम और खर्च का हिसाब न तो जनता ही एकजुट होकर माँगती है, न ही मिलता है, ऐसी परिस्थिति में आखिर यह कौन सी बात है जिसकी वजह से एक बड़े भू-भाग में हिन्दू से मुस्लिम तक खाप पंचायतों का बोलबाला है।
      कभी ये खाप पंचायतें एक स्त्री को कुछ साल से साथ रह रहे पति को छोड़कर अपने पुराने पति के पास लौट जाने का फरमान सुनाती हैं, तो कभी बच्चों और प्रेमी-पति को छोड़्कर पिता की मर्जी से दूसरी शादी कर लेने का। इन खापों की अधिकांश चिंताएं स्त्रियों को लेकर ही होती हैं। स्थानीय राजनेता खुलेआम इन खापों का समर्थन करते हैं तो राष्ट्रीय राजनेता कुटनीतिक रूप से या मौन से।


      इस क्षेत्र में अधिकांश महिलाएं अभी जागरुकता की पहली सीढियों पर ही हैं और समाज मुख्यतः पुरुषवादी ही है। अलग-अलग जातियों और समुदायों का घनत्व कहीं न कहीं ज्यादा होता है। ऐसी जगहों पर ये समूह पारंपरिक रूप से अपनी समस्याओं को खाप पंचायतों में सुलझाते थे। वर्तमान में ऐसी पंचायतों का नेतृत्व ऐसे लोग करते हैं जो या तो दबंग प्रवृत्ति के होते हैं या पारंपरिक रुप से धनाढ्य रहे हैं।


लोकतंत्र का तकाजा है कि राजनेताओं के लिए यह जरूरी हो जाता है कि कम-से-कम मेहनत में ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल किए जाएँ। यही तकाजा राजनेताओं को खापों का समर्थन करने पर मजबूर कर भारतीय लोकतंत्र को वोटतंत्र का जनाजा बना देता है। राजनेताओं को  एक-एक व्यक्ति से अलग-अलग मिलने के बजाए खाप के चंद नेताओं से मिलना और उन्हें अपने पक्ष में करना आसान होता है। बाद में खाप के ये नेता राजनेताओं के पक्ष-विपक्ष में सामुहिक या जातीय गोलबंदी का काम करते हैं। बदले में राजनेता ठेकेदारी-पट्टेदारी आदि के जरिए इन दबंगों के व्यक्तिगत हित मदद करते हैं और सामुहिक हित सामूहित कार्यों (ज्यादातर धार्मिक या आडंबरकारी आयोजनों) में चंदे देकर करते हैं। यह एक अति-सरलीकृत विवेचना है, उम्मीद है पाठकगण लेखक से ज्यादा समझदार होंगे ।
      यह मजबुरी राष्ट्रीय और स्थानीय नेताओं को इन खापों को बनाए रखने का कारण बनती है। दुसरी तरफ खापों को अपने आस-पास के माहौल पर वर्चस्व बनाए रखने में मदद करती है, विजयी राजनेता के समर्थक अपने क्षेत्र में दुसरी जातियों समुदायों पर वर्चस्व बनाये रखने में नेताजी की मदद भी लेते हैं। कभी-कभी तो ये राजनेता खापों के बीच विवादो में सुलहकर्ता की मुख भुमिका में भी रहते हैं। इस तरह तैयार होता है एक लोकताँत्रिक राजनेता और खाप का ऐसा गठजोड़ जो एक-दुसरे को कुछ भी करने की छुट दे देता है।
सर्वोच्च न्यायालय इन खाप पंचायतों और उनके द्वारा समय-समय पर जारी होनेवाले फरमानों को असंवैधानिक करार दे चुकी है, यहां तक कि कई मौकों पर खापों को अवैध करार देते हुए उन्हें सख्ती से बंद करने को कहा है। इसके बावजूद खाप पंचायतें न केवल तालीबानी फरमान जारी करती है बल्की स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय मीडिया के समक्ष उपस्थित भी होती है। राजनेता मजबुर है कि समर्थन करना छोड़ नहीं सकते। आलोचना होने पर केन्द्र राज्यों पर और राज्य केन्द्र पर कुटनीतिक दार्शनिकता की गुगली मारते हैं। देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के सर्वोच्च नेता का बयान खापों की आवश्यकता का नतीजा भले ही रहा हो लेकिन वोट के लिए किसी भी हद तक नीचे गिरने का सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो कानून का राज नहीं रह पायेगा। रह जायेगा तो केवल खापों का राज जो आधी आबादी के गैरतपूर्ण अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा देगा।

एक रुपये के अखबार को दस रुपये की चीन-आयातित पोलिथीन शीट ने हरा दिया

अखबार गरीबों के विकास कि चाहे जितनी चिन्ता करते हों, लेकिन स्टेशन पर गरीबों के बिछावन के तौर पर जरुर भारत-प्रसिद्ध था। सबसे कम किमत में मिलनेवाला अखबार गरीब तथा निम्न-मध्यवर्ग का चहेता इसलिए भी था क्योंकि वह थाली-प्लेट, ओढ़ना-बिछावन भी बन जाता था। पाठकों का एक वर्ग इसी बहाने अखबार खरीदता था, कुछ पन्ने बिछाता था, कुछ पन्ने पढ़ता और कुछ पर खाना खा लिया करता था।


      विगत कुछ वर्षों में चीन से आयातित पोलिथीन शीट दस रुपए में सभी रेलवे स्टेशनों पर मिल जाती है, जो असाधारण रुप से रंगीन होती है – भारत के किसी सबसे रंगीन समाचार-पत्र से ज्यादा रंगीन। इसकी लंबाई पाँच फुट और चौड़ाई तीन फुट होती है। वजन हर अखबार से कम। इस पर खाना खाने के बाद धोया जा सकता है, धोने के बाद एक रुमाल से पोंछ दें तो इस पर तुरंत सोया जा सकता है।

क्यों नहीं भारत से आगे रहेगा वह देश जिसने भारत के उस वर्ग की समस्या को दूर बैठे ही हल कर दिया। अब हर बार स्टेशन पर अखबार नहीं खरीदना पड़ता। एक पोलिथीन शीट कई महीने तक दैनिक यात्री के बैग में पड़ा रहता है।

Saturday 22 June 2013

प्राकृतिक आपदा में चन्दा की संस्कृति से आगे का रास्ता

प्राकृतिक आपदा के तुरत बाद देश के दुसरे हिस्से की सरकारों का कुछ कर्त्तव्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। प्राकृतिक आपदाग्रस्त  राज्य की सरकार और जनता के प्रति दुसरे राज्यों की सहानुभूति के सच को दो घटनाओं से समझा जा सकता है - एक राज्य के मुख्यमंत्री ने दुसरे राज्य के दौरे के दिन उस राज्य की जनता को समाचार-पत्रों में पुरे पन्ने के विज्ञापन द्वारा यह एहसास करवाया कि एक राज्य ने दुसरे राज्य को इतनी राशि की मदद की है। वहीं इस दुसरे राज्य की सरकार ने अपने ही राज्य के (दो दिन पहले बर्खास्त किए गए ) स्वास्थ्य मंत्री की प्राण रक्षा की गुहार को बिलकुल अनसुना कर दिया, जबकि यह जगजाहिर है कि उत्तराखंड में बड़ी संख्या में बिहारी भाई-बहन भी फंसे हुए हैं। जो सरकारें अपने राज्य की बड़ी राजनीतिक हस्तियों को बचाने के लिए कोई औपचारिकता नही करती वे सरकारे एक दो करोड़ का चेक देकर अपने किसी अफसर को मातमपुर्सी के लिए भेज देतीं हैं। वही दुसरे राज्य पर एहसान जतानेवाले मुख्यमंत्री एक  फिर हेलीकप्टर पर चढ़ कर एहसान जताने निकल पड़ते हैं।
किसी भी आपदा के आने में जनता की भूमिका नगण्य है. संविधान ने देश की संस्कृति का की रक्षा का भार जिनके ऊपर दे रखा है वे ही समलैंगिकता को मुख्यधारा बनाने पर तुले हुए है तो पोलिथिन संस्कृति और केदारनाथ  मौज मस्ती करने जाने की संस्कृति का दोष जनता पर डाल कर देश का ही नुकसान कर रहे हैं। इसलिए इस परिस्थिति में मेरे विचार में देश की आपदा प्रबंधन नीति कुछ इस प्रकार की होनी चाहिए:-

1.      प्राकृतिक आपदा की प्रथम सूचना मिलते ही युद्ध स्तर पर दुसरे राज्य सरकारों को सामग्री जुटाने का काम शुरू कर देना चाहिए। साथ ही जो भी दूसरी संस्थाएं मदद करने की इच्छुक हो उन्हें भी यही करना चाहिए। मौसम के साफ़ होने तक के 12, 24 या 48 घंटो तक यह काम चलता रहे तो देश के 24 राज्य सरकारों और इतने ही स्वयंसेवी संगठनो द्वारा मौसम साफ़ होते ही क्षेत्र में राहत सामग्री लेकर प्रवेश करना आसान होगा। सनद रहे कि  एक राज्य सरकार एक रात की नोटिस पर १-२ टन सामग्री तो भेज ही सकती है और ऐसा वे सभी दूसरी संस्थाए भी कर सकती हैं जो 1000  से 10000 करोड़ का आयकर प्रपत्र दाखिल करती हैं।

2.      मौसम साफ़ होने के बाद ये सभी संगठन अपने दल-बल के साथ क्षेत्र में अलग अलग दिशाओं से घुस जाएं। जान बचाने को वरीयता तथा स्थानीय लोगो को आसरा देते हुए स्थानीय लोगो तथा उस क्षेत्र में रह रही पुलिस सेना आदि की मदद लेते हुए ये आगे बढती जाएँ, तो जान बचने की तथा चिकित्सा सुविधा मिलाने की संभावनाए बढ़ जायेगी।


3.      ज़रा सोचिए जिस राज्य में आपदा आयी है वह सिर्फ नागरिको के ऊपर ही नही आयी है बल्की वहा के कर्मचारियो-अधिकारियों पर भी आयी होती है। जो खुद ही तबाह हो गया हो उससे मदद की उम्मीद करना कहा तक सम्यक है। इस परिस्थिति में देश न जाने किस कानून से कल रहा है कि प्राकृतिक आपदा से जुझने की पुरी जिम्मेवारी स्थानीय प्रशासन से शुरू और सैन्य बलों  पर ख़त्म हो जाती है।

4.      इसके बाद तबाही की सूचना जैसे जैसे बड़ी होती जाए वैसे वैसे बिना किसी अपने पराये का भेद किए तमाम राज्य सरकारे अपने कर्मचारियो को इस काम में झोकती जाएं। ऐसा करने से प्रथम और सतत मदद मिलना संभव हो जाएगा।


5.      सेना नौसेना और अर्धसैनिक बलों  को इस बात की आजादी दी जानी चाहिए कि  शांतिकाल में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं में मदद हेतु युद्धस्तर पर अधिकतम प्रयास करने, वांछित  संख्या में जवानो और उपस्करों के इस्तेमाल करने हेतु वे स्वतन्त्र हैं। इससे हेलीकोप्टर की कमी जैसे मुद्दों से निबटने में आसानी होगी।

6.      जब देश की राज्य सरकारे स्वयं स्वत:स्फूर्त मदद नही दे सकतीं तो जनता से चन्दा इकट्ठा करने का कोई मतलब नही है। उसी प्रकार यदि  देश के किन्ही 5-10 जिलों में आपदा आयी हो और बाकी लोग हवं करते रहे, मोमबत्तियां जलाते रहें,प्रार्थना करते रहें तो यह खुद के साथ भी छल है और उनलोगों के साथ भी जिन्हें मदद के लिए हाथ चाहिए, वे पैसा खाकर नही जी सकते। यदी पैसा खाकर जीना संभव होता तो 100  रुपये में बिस्कुट और पानी नही खरीदना पड़ता।


7.      देश के 25 राज्य सरकारों के पास अपने मुख्यमंत्रियों  के चढाने के लिए कम से कम 25 हेलीकोप्टर तो होंगे ही लेकिन घोटाले के उद्देश्य से खरीदे हुए , सेना और वायुसेना के हेलिकोप्टर के भरोसे ये खुद ही उड़ते है। फिर भी इनमे से किसी ने नही कहा कि मेरा हेलीकोप्टर ले जाओ, सभी ने करोड़ का चेक थमा दिया। 

8.      देश की सभी राज्य सरकारो और स्वयंसेवी संस्थाओं की  टीमों को एन डी  आर  एफ  से निर्देशन एवं सहयोग लेते हुए राष्ट्रवादी  एकजुटता की भावना से 10 - 20  दिनों तक भारतमाता की सेवा में जुट जाना चाहिए।

करत-करत अभ्यास ते, कर्कट कियो सब शिक्षण

नरोत्तम भास्कर
“आवहु सब मिल रोवहुं भाई, भारत दुर्दशा देखी न जाई” भारतेन्दु हरिश्चंद्र की यह उक्ति देश को स्वतंत्रता प्राप्त होने के 66 साल बाद भी उतनी ही सटीक है।अंग्रेजो द्वारा भारत की संपदा को अलग-अलग तरीके अपनाकर लूटकर इंग्लैंड ले जाने की स्थिति, उसकी विवेचना और उसके प्रभाव को देखते हुए भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने यह कविता रची थी। आज देश के सभी क्षेत्रों में उतनी ही लूट-मार मची हुई है, जितनी उनके समय में थी। देश की बौद्धिकता के स्तर को बनाए रखने के लिए जिम्मेवार शिक्षा प्रणाली भी इस लूट-मार के कारोबार में उतने ही संलग्न पाये जाते हैं जितना कोई और।
शुरुआत प्राथमिक शिक्षा से करते हैं। गांधी, महर्षि अरविंद और गुरु रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे विचारकों ने यह कहा था कि प्राथमिक शिक्षा हेतु मातृभाषा ही सबसे उपयुक्त माध्यम हो सकती है। देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जनता से टैक्स वसुल कर भारत देश में मनों स्याही और टनों कागज इस विषय पर शोधकार्यों, संगोष्ठीयों और आयोगों के द्वारा खर्च कर दिए गये, हरेक ने गांधीजी की बात का समर्थन किया। परिणाम ठीक उलटा हुआ क्योंकि गांधीजी तो वोट पॉलीटिक्स के आधार स्तंभ-मात्र थे, व्यक्तिगत जीवन में ज्योतिष, झाड़-फूंक और बाहर अंग्रेजीदांपन का दुमुहांपन कई संविधान-निर्माताओं की जीवन-पद्धति का शगल हुआ करता था। पहले-पहल प्रधानमंत्री के नातियों ने देहरादून के अंग्रेजी माध्यम के बोर्डींग स्कुलों मे पढ़ा था, यह अलग विवाद का विषय है कि खानदानवाद के अतिरिक्त उनकी बौद्धिक उपलब्धियां कुछ खास नहीं थीं।
दुसरी पीढ़ी के प्रशासकों ने अपने बच्चों को डी0ए0वी0 जैसी अंग्रेजी के कॉरपोरेट विद्दालयों मे भेजा, यहां यह अनुपयुक्त और अनुत्तरित प्रश्न है कि इनका भविष्य बनाने के लिए पुरे देश का कॉर्पोरेटीकरण करना पड़ा, साथ ही अनुत्तरित प्रश्न यह भी है कि ऐसा पिछली पिढ़ी द्वारा बनाए काले धन को जायज बनाने के लिए भी किया गया।
अब किंडरगार्डेन और  मांटेसरी की अवधारणा को आधार बना कर दो वर्ष की उम्र से ही विद्दाध्ययन की जिम्मेवारी नई पीढ़ी पर डाल दी गयी है, जबकि यह तय है कि बचपन बचाओ आंदोलन के युग में चलने वाले इन किड-स्कुलों में बचपन मिटाने की पुरी व्यवस्था कर दी गई है। किंडरगार्डेन और  मांटेसरी दोनों में खेलते-खेलते सिखने की अवधारणा का की खिचड़ी भारत के अलावा कौन पका सकता था। खिलौने दिखाकर एडमिशन लेने के बाद हजार रुपये के किताबों की लिस्ट थमाना कोई कैसे भूल सकता है, जो चंद पैसे कमिशन में लेने की लत ऐसी लगी हुई है।

किताबों के बोझ तले बचपन को दबाने, होमवर्क की मार से चश्मा लगवाने और नंबर की दौड़ में स्वास्थ्य को नजरअंदाज करने का पिछले चालीस वर्षों से शिक्षा व्यवस्था पर लगता रहा है। यह इत्त्फाक की बात नहीं है बचपन बचाओ जैसा एनजीओ-करण भी इसी शिक्षा व्यवस्था के साथ बढ़ता ही गया – मर्ज बढ़ती गयी ज्यों ज्यों दवा की।

खुदरा नहीं है

खुदरा माफिया से बेफिक्र भारतीय वित्त व्यवस्था

(नरोत्तम भास्कर)
देश के बिहार जैसे राज्य जिन्हें अक्सर बीमारु राज्य कह दिया जाता है उनकी एक विशेषता यह है कि दुनिया के सबसे सस्ते शहरों में से कई यहीं हैं। अमीर राज्यों में प्रति व्यक्ति आय ज्यादा होने से क्रयशक्ति ज्यादा है और क्रेडिट कार्ड जैसे आधुनिक विनिमय साधन भी ज्यादा है जिसकी वजह से महंगाई ज्यादा है।

कम क्रयशक्ति वाले बाजार में खुदरा की जरुरत ज्यादा होती है बजाए उनके जो क्रेडिट कार्ड से खरीदारी करते हों। लेकिन गरीब की बात सुनता कौन है। आज भी बिहार के गावों में तीन रुपये में समोसा और दो रुपये में खीरा मिल जाता है, लेकिन वहां बाहरी लोगों को सिर्फ इसलिए भुखा रहना पड़ सकता है क्योंकि खुदरा आपके पास नहीं है और विक्रेता के पास भी नहीं है। गांव तो भूल जाइए, बिहार के आधे पंचायतों मे अभीतक बैंक ही नहीं पहुंचा है तो खुदरा कौन उपलब्ध करवाए – ऐसी स्थिति में छोटी जोत वाले जो किसान रोज बाजार में टोकरी में सब्जी लेकर बेचने जाते हैं, खुदरा की उपलब्धता में कमी का दर्द उन्हें ही पता है।

दुसरी तरफ ग्रामीण खुदरा दुकानदार उधार ले-देकर काम चलाते हैं जिससे करेंसी से काम चल सके, लेकिन इसकी मार उसके व्यवसाय पर पड़ती है क्योंकि कभी-कभार आनेवाले या अंजान ग्राहकों को उधार नहीं दिया जा सकता। ये समाज के वे लोग हैं जिन्हें आज भी एक रुपये की अहमीयत का एहसास है और यह समाज का वह हिस्सा है जहां दो रुपये के सिक्के के लिए 10 रुपये का नोट लेकर एक घंटा घुमना पड़ता है।

शहरों की हालत भी बड़ी अच्छी नहीं है। कई बार ग्राहक और दुकानदार इस बात को लेकर भीड़ जाते हैं कि खुदरा रखना किसकी जिम्मेवारी है। सुबह-सुबह टेम्पो ड्राइवर की बोहनी खुदरा की वजह से खराब होगी तो गुस्सा ग्राहक पर ही उतरता है।

“5 किलो आलु बेचने पर 2 रुपया बचता है, बाजार रोज ऊपर नीचे होता रहता है, कंपीटिशन अलग से है, इसलिए 2-3000 रुपया का खुदरा रोज लेकर बाजार में बैठना पड़ता है” पटना के राजाबाजार के एक सब्जी विक्रेता अनिल ने बताया। रोज सब्जी लाने और बेचने के अलावा खुदरा का जुगाड़ करना भी इनकी रुटीन में शामिल हो गया है। पहले तो आइसक्रीम वाले से जुगाड़ हो जाता था, जब से आइसक्रीम 5-10 रुपये के डिब्बे में आने लगी वह रास्ता भी बंद हो गया। पंडित जी एक दुसरे श्रोत थे लेकिन अब उन लोगों ने भी बाजार में आरती घुमाने का काम बटाइदारी पर देकर खुद बड़े कर्मकांडों को पकड़ लिया।

यह पुछने पर कि बैंक से खुदरा मिलता है क्या, उसने बताया कि बैंक रोज इतना खुदरा नहीं देते इसलिए कुछ तो बैंक से जुगाड़ करना होता है और कुछ बाजार से (बैंकिंग की समांतर व्यवस्था) से खुदरा उठाना पड़ता है।

शहरों मे खुदरा की कमी का विकल्प बन कर उभरा है 50 पैसे और एक रुपये का चॉकलेट, लेकिन एक रुपये की कीमत समझने वाले कुछ लोग इसका विरोध करते है और दुकानदार के पास खुदरा आने का इंतजार करते दीख जाते हैं। झुंझलाते-बुदबुदाते ये लोग यह नहीं समझ पाते कि पैसे से खात्मे से शुरु हुआ रुपये की हत्या की राष्ट्रीय योजना रुपी नदी, महंगाई और खुदरा की कमी तो दो किनारों के बीच ही बहती है।

पेश हैं कुछ तथ्य:
·                     10,000 रुपये प्रतिदिन कारोबार करने वाले औसत सब्जी दुकानदार को जरुरत होती है प्रतिदिन 200-300 रुपये के सिक्के और 2000 रुपये के खुदरा नोटों की।
·                     बैंक इतना खुदरा रोजाना देने से कतराते हैं, जिससे दुकानदारों को 5-10% के बट्टे पर ब्लैक मार्केट से खुदरा लेना पड़ता है।
·                     शहरी क्षेत्रों में चाकलेट बने खुदरा के विकल्प, दुकानदार देते तो हैं लेकिन लेते नहीं, चाकलेट कंपनियों की बल्ले-बल्ले।
·                     एक निश्चित सीमा से ज्यादा खुदरा लेन देन पर बैंक विशेष अधिभार लगाते हैं।
·                     बड़े शहरों की कुछ ही बैंक शाखाओं में खुदरा देनेवाली ए0टी0एम0 उपलब्ध हैं, उनपर पर भी एक बार में खुदरा प्राप्ति की सीमा निश्चित है।
·                     खुदरा न रहे तो ग्रामीण क्षेत्रों मे रहना पड़ सकता है आपको भूखा, चाय भी नहीं मिलेगी।
·                     ग्रामीण क्षेत्रों के व्यवसायियों का बुरा हाल, लेन-देन की रकम छोटी होती है लेकिन खुदरा उपलब्ध नहीं।
·                     खुदरा की कमी से ग्रामीण व्यवसायी जान-पहचान के ग्राहकों को उधार देकर चलाते है धंधा।
·                     सिर्फ बड़े नोट उगलने वाले ए0टी0एम0 भी हैं जिम्मेवार।
·                     लिक्विडीटी पर तुरत कदम उठानेवाला भारतीय वित्तीय तंत्र खुदरा के मुद्दे पर रहता है खामोश।

·                     परिणाम भुगतते हैं छोटे सब्जी उत्पादक, छोटे किसान, छोटे व्यवसायी और निम्न तबका।