Saturday 1 December 2012

छठ के दिन जो कलेक्टेरियट घाट पर हुआ, रावण-वध के दिन उसे मै गांधी मैदान में झेल आया हुं।


रावण-दहन के तीस मिनट बीतते-बीतते मेरे साथ की महिलाओं-बच्चों का धैर्य जवाब दे चुका था और वे वहां उपलब्ध पावभाजी से लेकर आइसक्रीम तक सबकुछ चख चुके थे। मुझे उनकी बात माननी पड़ी और बाहर निकल रही भीड़ के साथ हो लेना पड़ा, उसी गेट की ओर जिससे होकर आया था।


रावण दहन के दस मिनट के अंदर भीड़ के दबाव के आगे प्रशासन के सिपाही चाहरदिवारी पर चढ़ कर अपनी जान बचा रहे थे। मैं अपने साथ की महिलाओं को देख भी नही पा रहा था और ना उनसे बात कर पा रहा था। गेट के पचास मीटर अंदर से पचास मीटर बाहर तक भीड़ एक धीमी गति से चलने वाली आटा चक्की कि तरह मुझे और बच्चों को पिस रही थी। गेट से एक कदम बाहर आते ही भीड़ का दबाव हर व्यक्ति को सौ फीट चौड़ी सड़क के उस पार के भवन के पास तक फेंक रही थी। मेरी नजरों के सामने से मेरा एकलौता बेटा और मेरे गांववाले पडोसी का बेटा मौत के मुंह मे जाते-जाते बचा, क्योंकि दोनो बच्चे मेरे दोनो कंधो पर थे और भीड़ का असाधारण दबाव मेरे खुद के कलेजे को बाहर निकाल रहा था। बधाई देना चाहुंगा उन जमीर-विहीन समाचार माध्यमों को जो राजनेताओं की ओट मे अपनी दुकान चलाते हैं, लेकिन ये बाते उन्हे नही दिखतीं।

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