Friday, 17 May 2013

भारत मे शोध की स्थिति


भारत मे शोध की स्थिति पर विश्वविद्दालयों के माहौल पर काशी विद्दापीठ के प्राध्यापक श्री प्रभा शंकर मिश्रा जी की चिन्ता है कि कुछ विद्दार्थी प्रोजेक्ट वर्क करके उपलब्ध करवाने वाली दुकानों से सिलेबस में शामिल आवश्यक शोधपत्र लिखवा कर प्रस्तुत कर देते हैं।
1980 के पहले शहरों में सरकारी चिकित्सकों के निजी क्लिनीक चलाने और सरकारी शिक्षकों के निजी स्तर पर ट्युशन चलाने की आलोचना और इनपर रोक लगाने की जरुरत संबंधी खबरें आये दिन समाचार-पत्रों मे जगह बनाती थी। लेकिन 1990-2000 आते-आते ट्युशन कोचिंग की इतनी प्रगति हुई कि इनकी निजी कंपनीयां खड़ी हो गयीं। उस समय के तमाम आलोचक किसी न किसी तरह से निजी क्लिनीक और निजी ट्युशन के चंगुल में फंसा हुआ पाते हैं। ऐसे भी कई उदाहरण हैं कि ट्युशन की 20 वर्ष पुरानी कंपनीयों ने निजी विश्वविद्दालय खड़े कर दिये। यहीं यह सवाल पैदा होता है कि नकली शोधपत्र लिखवाने वाली दुकानें ही भारत का भविष्य हैं?
पहली कक्षा के शहरी बच्चों को ऐसा एक भी प्रोजेक्टवर्क नहीं मिलता जिसे बच्चा खुद तैयार कर सके। पहली से पांचवी तक के प्रोजेक्ट वर्क अभिभावक खुद किसी तरह से तैयार कर देते है लेकिन छठी कक्षा के बाद प्रोजेक्ट वर्क की दुकानों का सहारा लेना ही पड़ता है। कंक्रीट के जंगलों में कैद जिन बच्चों को गाय और नीलगाय का अंतर और धान और गेहूं का अंतर नहीं पता उन्हें कागज के नकली नदी में पांच नकली जलजीव बनाने का टास्क मिले तो अभिभावक के माथे पर बल पड़ना स्वाभाविक है।
अपने अधिकांश प्रोजेक्ट वर्क के लिए दुकान पर निर्भर रहने वाला छात्र जब कॉलेज पहुंचता है तो परीक्षा के लिए कुंजी पर निर्भर होने लगता है। उसके सामने कई दुविधाएं होती हैं, ग्रामीण कॉलेज में क्लास करे या बड़े से बड़े शहर में कोचिंग। क्लास की हार होती है लेकिन जब वह आइ0आइ0टी0 या आइ0ए0एस0 निकालता है या बोर्ड में उच्च स्थान पाता है तो कोचिंग और कॉलेज दोनों की जै-जै हो जाती है, सफलता की आंधी ऐसे सारे सवालों को हवा कर देती है।
पढने मे काफी अच्छे बहुत सारे बच्चे इन परीक्षाओं मे अपनी जगह नहीं बना पाते। हिन्दी पट्टी के छात्रों की बड़ी संख्या सरकारी नौकरीयों की तैयारी के साथ कॉलेज की डिग्री हासिल करने को पहली और कॉलेज के क्लास को दुसरी प्राथमिकता देती है। ऊपर से प्रोजेक्टवर्क किसी दुकान से करवा लेने की उसके ‘शैक्षणिक संस्कार’, जो कन्वेन्टेड आधुनिक शिक्षा पद्धति की देन हैं, इनसे यही अनुमान लगाया जा सकता है कि नकली शोधपत्र लिखवाने वाली दुकानें ही भारत का भविष्य हैं।
बी0ए0 और एम0ए0 का विद्दार्थी इतना तो खुब अच्छे से समझता है कि खुली प्रतियोगिता परीक्षाएं ही भ्रष्टाचार मे डुब चुकी हैं और उनकी विश्वसनीयता नौकरी मिलने के कुछ वर्षों बाद तक कठघरे में रहती हैं। ऐसी परिस्थिति में शोध आधारित नौकरियों को जो ज्यादातर पूर्णतया साक्षात्कार आधारित होते है के पीछे कितना और कैसे भागा जाए। इस तरह एम0ए0 की डिग्री भी एक रुटीन डिग्री बन जाती है ।
आजादी के 70 वर्ष होने को हैं, लेकिन व्यक्ति के निजी स्वभाव और आवश्यकता की कोई अहमियत शिक्षा क्षेत्र में नहीं है। जहा एम0ए0 उपलब्ध है, फोटोग्राफी में जाने को उत्सुक छात्र को एम0ए0 करना पड़ता है, दुसरी तरफ शोध में उत्सुक छात्र देश के नामी-गिरामी जर्नलिज्म व जनसंचार संस्थानों में डिप्लोमा करने के बाद एम0ए0 के लिए भागता है। फोटोग्राफी में जाने को उत्सुक छात्र को शोधपत्र प्रस्तुत करने की मजबुरी होगी तो नकली शोधपत्र लिखवाने वाली दुकानें ही भारत का भविष्य बनेंगी।

1 comment:

  1. सही कहा नरोत्तम जी आपने इस विषय पर जल्द ही मै आप दोस्तों से विस्तार से चर्चा करने वाला हूँ . धन्यबाद की आपने एक शिक्षक के दर्द को समझा . पुनश्च धन्यबाद ...

    ReplyDelete