नालंदा विश्वविद्दालय भारत ही नहीं विश्व का अपने समय का
महानतम विश्वविद्दालय हुआ करता था। भारत के पूरब से पश्चिम तक जहां भी मानव सभ्यता
मौजुद थी, वहां से कोई-न-कोई व्यक्ति शिक्षा ग्रहण करने भारत के नालंदा
विश्वविद्दालय आया और वह व्यक्ति जब वापस गया तो अपने देश के बौद्धिक जगत में
आध्यात्मिक क्रान्ति का प्रसार किया।
उस काल में
सीमेंट और कंक्रीट की उपलब्ध नहीं था। ऐसी स्थिति में जब यह कहा जाता है कि नलंदा
विश्वविद्दालय का पुस्तकालय नौ तलों का था तो यह कल्पना करना मुश्किल हो जाता है
कि कैसे वह भवन बनाया गया होगा, कैसा दीखता होगा, उसमें क्या सुविधाएं होंगी आदि।
उसमें हजारो छात्र अध्ययन करते थे और ताड़पत्र और भोजपत्र पर लिखे लाखों ग्रंथ
संग्रहित किए जाते थे।
यह प्रश्न आज
भी कपोल-कल्पित विवेचना का विषय है कि इस महानतम विश्वविद्दालय के विशाल पुस्तकालय
में आग लगायी गयी वह आग छ: महीने तक जलती रही लेकिन किसी ने बुझाया क्यों नहीं। इस
प्रश्न का उत्तर मैं अपनी कपोल कल्पना से देने का प्रयास करना चाहुंगा, मेरी यह
धृष्टता जिन्हें पसंद न आये वे क्षमा करेंगे। मेरी नजर में जो बातें मैं कहने जा
रहा हुँ वह नालंडा विश्वविद्दालय के लिए तो क्ल्पित है, मैकाले की शिक्षा पद्धति
का जनता से समर्थन का एक कारण है और आज के शिक्षा व्यवस्था के लिए भी उतना ही सही
और चेतावनी है।
(अ). आम जनता, खासकर मध्यवर्ग का
विश्वास और सम्मान हासिल करना और बनाये रखना किसी भी व्यवस्था के सुदीर्घ होने की
प्रथम जरुरत है। जनता का विश्वास और प्रेम खो देने के बाद बड़ी से बड़ी सैनिक
व्यवस्था टिक नहीं सकती। इसके निम्नलिखित कारण हो सकते हैं :
(क). स्थापना के प्रारंभिक कुछ शताब्दियों तक इस विश्वविद्दालय को समय समय पर
राज्यों से धन-दान मिलता रहा। लेकिन जब राज्याश्रय बंद हुआ तो विश्वविद्दालय अपने
आस पड़ोस के चंद गावों पर आधारित हो गया जो उसे अपना खर्च चलाने के लिए राजाओं से
दान में मिले थे। लेकिन तबतक इस विश्वविद्दालय का काफी विस्तार हो गया था और छात्रों
और शिक्षकों की संख्या काफी बढ़ गयी थी जिसका भार उठाना चंद गांवों के लिए संभव
नहीं था।
(ख). इस प्रकार से सवर्ण से अवर्ण तक और गरीब से अमीर तक, पास पड़ोस के गावों
में बसने वाली जनता इस विश्वविद्दालय के छात्रों और शिक्षकों की भारी भरकम फौज का
बोझ उठाते-उठाते थक गयी और इस बोझ को उतार फेकना चाहती थी। इसलिए जब विश्वविद्दालय
में नरसंहार के बाद पुस्तकालय में आग लगायी तो आस-पास के लोगों ने बुझाने का कोई
खास प्रयास नहीं किया।
(ग). उस विश्वविद्दालय के ज्ञानी-तपस्वी लोगों ने अति-आधात्मिकता के आगे भौतिक
विकास की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। जिससे आम जनता को उस विश्वविद्दालय से कोई
खास लाभ नहीं दिख रहा था। यहां इस तथ्य की अनदेखी की गयी कि शिक्षा समाज के
सर्वांगीण विकास के लिए होनी चाहिए। वर्तमान में अति-भौतिकता के आगे आध्यात्मिकता
की अनदेखी हो रही है।
(घ). विश्वविद्दालय ने बदले में उन गावों को क्या दिया। उस विश्वविद्दालय में
नामांकन की शर्तें ऐसी थीं कि आस-पास के गावों से चंद लोग ही उस विश्वविद्दालय में
अध्ययन कर पाये। दुसरी तरफ विश्वविद्दालय उन्हें कोई भौतिक लाभ देने से रहा।
(ङ). शंकराचार्य ने इस विश्वविद्दालय के लिए उतना भी नहीं किया जितना गया के
गयापालों के लिए किया। दुसरी तरफ इस विश्वविद्दालय के ज्ञानीजन न तो शंकराचार्य को
हरा पाये न ही कोई सौहार्द्रपूर्ण संबंध कायम कर पाये। दुसरी तरफ शंकराचार्य और
उनसे शास्त्रार्थ करने वाले लोग इस विश्वविद्दालय से संबंधित नहीं थे, जिसे इस
विश्वविद्दालय की स्थिति में पराभव का लक्षण माना जा सकता है। इन घटनाओं ने जनता
के मन से विश्वविद्दालय के लिए आदरभाव को नष्ट किया।
(च). पिछले हजार सालों से देश में
अपने-अपने जगह पर सैकड़ों धर्माचार्यों के रहते हुए भी हिन्दू धर्म से दुसरे धर्म
में धर्म परिवर्तन निरंतर जारी है, इसे अगर अपने मुंह मियां मिठ्ठुओं के तप में
कमी माना जाए तो इसी प्रकार की कमी उस विश्वविद्दालय के आचार्यों में भी पिढ़ी दर
पिढ़ी बढ़ती गयी। तप्श्चर्या के अभाव में मंत्र और पूजा के अभाव में देवता श्रीहीन
हो जाते है, यही स्थिति इस विश्वविद्दालय की हो गयी। इस परिस्थिति ने जनता के मन
से गर्वभाव को समाप्त करने का काम किया।
(ब).
स्थापना के प्रारंभिक कुछ शताब्दियों तक इस विश्वविद्दालय को राज्याश्रय प्राप्त
था। मुस्लिम आक्रमण के बाद तत्कालीन राजसत्ताएं खुद के बचाव के आगे इस
विश्वविद्दालय पर ध्यान नहीं दे पायीं।
(स). जब राज्य और राजा ही परास्त
हो गये तो विश्वविद्दालय की रक्षा कौन करता। जब हमला हुआ तो जनता अपनी जान बचाने
के लिए इधर उधर भागने लगी। भयानक आग लगी तो इसे बुझाने वाला कोई व्यक्ति-समूह वहां
रहा ही नहीं। चार-छ: माह बाद, जबतक जंगलों से वापस लौटकर लोग वापस आये तबतक
पुस्तकालय जल चुका था।
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