मिट्टी के मकान और फूस की
झोपड़ी में से इतना भी कचरा नहीं निकला था कि दोनों हाथों मे भर सके। देखना है तो सुदूर
देहात में जाइए और किसी आदिवासी के यहां सुबह-सुबह देख लिजिए। फिर आदमी ने आधुनिक
बनना और विकसित बनना शुरु किया। आदमी के द्वारा फेंके गए कचरे से गढ्ढे भर गे,
तालाब-आहर-पोखर-पइन भी भर गए। गोया कचरा न हो कोई राक्षस हो। हल्की-सी बरसात हुई
नहीं कि बाढ़ हाजिर हो जाए और उस बाढ़ में बहता गली-कुचे में लुक छिप कर फेंका गया
कचरा मुंह के सामने नाजिर हो जाए।
विकास हुआ तो कचरे का या
आदमी का, यह सवाल आदमी से पूछने पर थप्पड़ खाना पड़ेगा, क्योंकि आदमी को विकास के
प्यार में परेशान है। वह दिन-रात या तो बेरोजगारी का थप्पड़ खा-खाकर परेशान है, या
नियोक्ता के। जो इनसे बच जाते हैं वे तो मीडिया के पीछे पड़ने से परेशान हैं। कुछ
भी हो परेशान मस्तिष्क को सवाल-जवाब से झुंझलाहट होती है। परेशानीयों के थप्पड़
खाकर झुंझलाया इंसान इस तरह के सवाल करनेवाले पर थप्पड़ जरुर चला देगा। क्योंकि वह
जानता है कि उसके सोंचने से कोई व्यावहारिक संतोषप्रद जवाब नहीं मिलेगा। इसलिए जो
सोचने को कहे समझो समय उसका भारी हो गया है। तब कचरे से ही सवाल पूछ्ना मजबुरी है।
अब कचरा भी बोलता है भला!
आदमी चुप रहता है तो सबूत बोलता है। सबूत को चुप करने के लिए रुपया बोलता है! रुपए
के दम पर वकील बोलता है, वकील के दम पर न्यायाधीश बोलता है। विज्ञापनदाता के कहने
पर पत्रकार बोलता है, कसाई के यहाँ पहुँचने पर गुंगा बकरा भी बोलता है। इसी तरह जब
डेंगु-मलेरिया होता है तो मरीज के मुंह से कचरा बोलता है, सरकार के पुरी फौज लगाने
पर भी नहीं मरनेवाले मच्छर के मुंह से कचरा बोलता है, ऑटो-कार-रेलवे-कारखाने के
धुंए से कचरा बोलता है, गौर से देखो गली-गली में आजु से बाजु से कचरा बोलता है।
कचरा क्या बोलता है –
पहाड़ों में पत्थर थे, पथरों पर झाड़ीयाँ थी, झाड़ीयों मे हरियाली थी, हरियाली मे
जड़ी-बुटीयाँ थी, जड़ी-बुटीयों मे मनुष्यों की जीवनी शक्ति थी। मनुष्यों ने अपनी
जीवनी शक्ति की जड़ी-बुटीयों की नस्ल मिटायी, हरियाली हटा कार्बन-डाई-ऑक्साइड
बढ़ाया। फिर पत्थरों को तोड़ने में बारुद लगाया, ढोने में डीजल, इंच-दर-इंच कंक्रीट
ढलवाया । हर दस साल बाद नया कंक्रीट ढलवाया। मनुष्यों के द्वारा तोड़ा गया हर पत्थर
एक दिन कचरा बन जाता है, पेट्रोलियम की हर बुंद एक दिन कचरा बन जाती है, हर पानी
की बोतल कचरा बन जाती है, दवाओं की पैकिंग कचरा बन जाती है, कुर्सी-पलंग-टेबुल
कचरा बन जाती है, हर कागज का टुकड़ा कचरा बन जाता है, हर भोजन (चाय-बिस्कीट-केक) की
पैकेजिंग कचरा बन जाती है, बच्चे जब अकेले छोड़ कर विदेश चले जाते हैं तब समझ में
आता है कि इंसान खुद कचरा बन गया है। कभी राजतंत्र कचरा बन जाता है तो कभी राजा
कचरा बन जाता है, कभी प्रजातंत्र का प्रधानमन्त्री – राष्ट्रपति भी एक दिन कचरा बन
जाता है।
मनुष्य जो भी विकास के नाम
पर करता है वह एक दिन कचरा बन जाता है। इंजिनीयरींग का नमुना पटना का गांधी-सेतु
कचरा बन जाता है, अमेरीका का वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर कचरा बन जाता है। मेडिकल साइंस
की खोजी गई हर नई एंटीबायोटिक एक दिन कचरा बन जाती है। नौकरी स्थायी हो जाने पर
पी0एच0डी0 की थेसिस भी कचरा बन जाती है। जब स्टेशन पर शिशु को दूध नहीं मिलता तो
पॉकेट का रुपया कचरा बन जाता है। स्टेशन से याद आया – हर बीस साल बाद रेलवे का
इंजन-पटरी-डिब्बा कचरा बन जाता है, पचास साल बाद पूरा रेलवे स्टेशन कचरा बन जाता
है। नालंदा विश्वविद्दालयों के खंडहरों में कुआँ आज भी मौजुद है लेकिन महान
अविष्कारों की देन बोरींग-मोटर-पानी की टंकी कचरा बन जाती है।
कचरे
ने आगे कहा – बता भला मैं रक्तबीज कैसे न बनुं। जब मनुष्य दिन-रात कचरा बनाता है,
अपनी सारी अकादमिक बुद्धि को कचरा बनाने में लगाता है, उसका हर आविष्कार और
अनुसंधान नए-नए विकसित संस्करण के कचरे बनाने का प्रतिफल देता है, उसकी पढ़ाई नंबर
एक की दौड़ में उसके अच्छे भले बच्चे को कचरा बना देती है, उंची पगार और कैरियर के
लिए बारह चौदह घंटे प्रतिदिन की कसरत को जायज ठहराकर दिल-नाड़ी-किडनी को कचरा बनाती
है। मानव का कोई ऐसी गतिविधि ही नहीं है जो क्चरा नहीं बनाती – क्या फैशन, क्या
एजुकेशन, क्या नौलेज, क्या जर्नलिज्म, क्या इंटरप्रेन्योरशीप, क्या रिसर्च, क्या
इन्नोवेशन।
पूछना
पड़ा – पिछले हजारों सालों से आप कहां थे कचरा महान? मानना पड़ेगा कि धरती से
अँतरीक्ष तक आपका ही साम्राज्य है। आपको किसी का भय नहीं लगता?
सतयुग-द्वापर-त्रेता का अंत हुआ, इतिहास में कई राक्षसराज पैदा हुए सबका अंत हुआ,
ईश्वर के सभी अवतारों का अंत हुआ, लेकिन आपको तो अपने अंत का कोई भय ही नही है।
कभी कोई बुरा सपना देखा हो तो बताएँ।
अट्टहास
कर कचरा बोला – हजारों सालों से न कंक्रीट था, न पेट्रोलियम और न ही मानव में
मूर्खता थी। मानव जो भी करता नैतिकता के दायरे से बाहर नहीं जाता था। सबसे बड़ी बात
कि मनुष्य तब प्रकृति को ईश्वर समझता था और खुद (अपने शरीर) को कचरे का डब्बा।
अपने स्वत्व के अहंकार से मुक्त रहकर वह प्रकृति का पोषण करता था, अभी की तरह दोहन
नहीं. पहले वह उन्हें गुरु मानता था जो हर तरह का ज्ञान, आनंद और विकास अपने शरीर
के अंदर से ढुँढ़ निकालते थे। दुसरों के लिखे-कहे का रट्टामार जोड़-तोड़ कर खुद को
बड़ा साबित करने की कोशिश करनेवाला धुर्त घोषित कर दिया जाता था। अब वह उसे गुरु
मानता है जो ज्यादा से ज्यादा किताबें रट्टा मार चुका हो, ज्यादा से ज्यादा कागज
के रुपये, डिग्रीयां या सम्मानपत्र इकट्ठा कर चुका हो। अब सबसे बड़ा वह है जो सबसे
ज्यादा कचरा गढ़ चुका हो।
तभी
तो हिमालय की तराईयों में और अंडमान-निकोबार के द्वीपों में मनुष्य हजारों सालों
से चैन से रह रहा था। आज उसे कहीं चैन नहीं है। गांवों से शहर भागता है, शहरों से
महानगर, महानगरों से विदेश, विदेश से दुसरे ग्रहों पर लेकिन बेचैन ही मर जाता है।
वह भूल गया है ईसा मसीह और पैगम्बर मोहम्मद को, राम और कृष्ण को कालपनिक घोषित कर
चुका है – गांधी को भी कहां मानता है। गांधी ने कहा था कि पृथ्वी अपने सारी
संतानों को खाना दे सकती है लेकिन किसी एक व्यक्ति के लोभ का पेट नहीं भर सकती।
अगर उनकी बात को मनुष्य मानता तो तमाम लोभीयों को चुनाव में सीधे हरा देता लेकिन
पीढ़ीयों से रोटी देनेवाली अपनी धरती मां को छोड़ कर भागता नहीं। जिस प्रकार आदमी
जितना भागता है उसे कुत्ते और मधुमक्खी उतना ही खदेड़ते हैं, उसी प्रकार आज का आदमी
जितना भागदौड़ करता है उतना ही मेरा साम्राज्य बढ़ता है, क्योंकि विकास की मृगतृष्णा
में वह हर कदम पर कचरा ही तो पैदा करता जाता है।
मुझे
किसी का भय नहीं है। किसी के पास इतना समय नहीं है कि इतनी दूर तक सोंचे, जो इतना
सोचेगा उसे दुनिया पागल घोषित कर देगी, न्युटन की तरह। वह जितना बाहरी विकास करेगा
उअतना ही कचरा पैदा करेगा, उतना ही अधिक मेरा साम्राज्य बढ़ेगा, उतना ही मैं गरीबों
का खुन पिउंगा और शक्तिशाली बनुंगा। जो बचेंगे वे विकास के अतिरिक्त कुछ भी
दाएँ-बाएँ नहीं सोचेंगे क्योंकि वे मानते हैं कि वे ही सबसे बुद्धिमान, शक्तिशाली
और विकासशील और विकासशील हैं। जो भी आभ्यंतर के विकास की बात करेगा उसे आमरण अनशन
की मौत नसीब होगी। इसलिए मैं निर्भय हुं। जो लोग ठहरकर सोचेंगे वे पायेंगे कि उनका
पड़ोसी उनसे बहुत आगे निकल चुका है, उनकी आनेवाली पीढ़ीयां अपने भौतिक पिछड़ेपन के
लिए अपने पितरों को गाली देंगी और विकास की अंतहीन अंधी सुरंग में दौड़ पड़ेंगी -
जिवनभर कचरा पैदा कर खुद कचरा बन जाने के लिए।
हां!
एक बार बहुत समय पहले एक बुरा सपना आया था, गांधी की तरह कोई खुद नंगे रहकर
अनुयायियों से कपड़े जलवा रहा था, मार्क्स की तरह पेट्रोलियम-कंक्रीट के खिलाफ चौराहे
पर चिल्ला रहा था, शंकराचार्य और विवेकानंद की तरह विश्वभर के विद्वानो और
वैज्ञानिकों को निरुत्तर कर रहा थ, ईसा मसीह की तरह उसे सुली पर चढ़ा दिया गया तब
जाकर मेरी नींद खुली। जब नींद खुली तो पाया कि पिछले एक घंटे में मेरा साम्राज्य 100 हेक्टेयर बढ़ चुका है, मेरे
अनुयायीयों की संख्या एक लाख बढ़ चुकी है सारे अनुयायियों ने कमा-कमाकर एक हजार टन
कचरा बढ़ा दिया है। सपने से पैदा हुई चिंता दूर हो चुकी थी।
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